Tuesday, July 30, 2019

वृद्धि एवं विकास की परिभाषा तथा अंतर





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प्रस्तावना-
प्रत्येक व्यक्ति में शारीरिक मानसिक भावनात्मक और सामाजिक परिपेक्ष में पल-पल बदलाव आता है.
जन्म के समय बालक शिशु कहलाता है कुछ समय बाद बालक फिर किशोर वयस्क और एवं वृद्ध कहलाता है। प्रारंभिक अवस्था में वह अबोध कहलाता है, फिर शरारती गंभीर विद्वान ज्ञानी आदि विशेषताओं से युक्त हो जाता है। व्यक्ति की आयु में वृद्धि के साथ साथ उसके शारीरिक और मानसिक योग्यता क्षमताओं में भी वृद्धि होने लगती है इस कारण व्यक्ति के व्यक्तित्व एवं व्यवहार में भी परिवर्तन होता रहता है। शिक्षा के क्षेत्र में बालक के व्यक्तित्व एवं व्यवहार का अध्ययन किया जाता है। बालक के संपूर्ण व्यक्तित्व में परिवर्तन को अभिवृद्धि एवं विकास के नाम से जाना जाता है।

अभिवृद्धि-
अभिवृद्धि का सामान्य अर्थ होता है आगे बढ़ना बालक के वृद्धि के संबंध में इसे उसके शरीर के आंतरिक एवं बाह्य अंगों के आकार भार और इनकी कार्यक्षमता में होने वाली वृद्धि के रूप में देखा जाता है मानव शरीर में यह वृद्धि एक आयु तक (18- 20 ) वर्ष की ही होती है. उसके बाद अंगों में वृद्धि नहीं होती अर्थात इस आयु तक व्यक्ति पूर्ण वयस्क हो जाता है इस वृद्धि को देखा परखा जा सकता है। और इसका मापन भी किया जा सकता है।
मानव अभिवृद्धि से तात्पर्य उनके शरीर के बाह्य एवं आंतरिक अंगों के आकार भार एवं कार्य क्षमता में होने वाली वृद्धि से होता है जो उसके गर्भ समय को परिपक्वता प्राप्त करने तक चलती है।

विकास का अर्थ-
विकास एक स्वाभाविक प्रक्रिया है जो जन्म से लेकर के जीवन पर्यंत तक निरंतर चलती रहती है केवल शारीरिक वृद्धि की ओर ही संकेत नहीं करती अपितु इसके अंतर्गत हुए सभी शारीरिक मानसिक सामाजिक एवं संवेगात्मक परिवर्तन सम्मिलित रहते हैं जो गर्भ काल से लेकर के मृत्यु उपरांत तक निरंतर प्राणी में प्रकट होते रहते हैं।विकास में होने वाले सभी परिवर्तन सामान नहीं होते जीवन की प्रारंभिक अवस्था में होने वाले परिवर्तन रचनात्मक और परिवर्तन विनाशात्मक होते हैं रचनात्मक परिवर्तन प्राणी में परिपक्वता लाते हैं और विनाश आत्मक परिवर्तनों से वृद्धावस्था की ओर ले जाते हैं। विकाश एक व्यापक शब्द है। इसे परिवर्तनों की श्रंखला भी कहा जाता है इसके फलस्वरूप व्यक्ति में नवीन विशेषताओं का उदय होता है तथा पुरानी समस्याओ की समाप्ति हो जाती है। प्रौढ़ावस्था में पहुच कर मनुष्य स्वयं को जिन गुणों से संपन्न पाता है विकास की प्रक्रिया के ही परिणाम होते हैं।

विकास की परिभाषा-
हरलॉक के अनुसार-
"विकास केवल अभिवृद्धि तक ही सीमित नहीं है वरन् वह व्यवस्थित तथा संगत परिवर्तन है जिसमें की प्रौढ़ावस्था के लक्ष्य की ओर परिवर्तनों का प्रगतिशील क्रम नहीं रहता है जिसके परिणाम स्वरूप व्यक्ति में नवीन विशेषताएं एवं योग्यताएं प्रकट होती हैं."

मुनरो के अनुसार -
“विकास परिवर्तन श्रंखला की वह अवस्था है जिसमें बच्चा प्रौढ़ावस्था से लेकर के पूर्ण अवस्था तक गुजरता है विकास कहलाता है.”

वृद्धि एवं विकास में अंतर -
मुख्यतः वृद्धि एवं विकास का प्रयोग लोग पर्यावाची शब्द में करते हैैं लेकिन इन दोनों में काफी अंतर है जिसे हम निम्नलिखित रूप से देख सकते हैैं -

1.अर्थ के अधार पर-
वृद्धि का अर्थ है शारीरिक परिवर्तन। इन परिवर्तनो के कारण व्यवाहार मे परिवर्तन होने लगता है। लेकिन विकास का अर्थ गुणात्मक परिवर्तनो से किया जाता हैं। जैसे- बालक की कार्यकुशलता का विकास, उसकी कार्यक्षमता में विकास और व्यवहार में सुधार आदि।

2.व्यापक व संकुचित शब्द-
वृद्धि को विकास से संकुचित माना जाता है। क्योंकि वृद्धि की अवधारणा विकास की अवधारणा का ही एक भाग है।

3.परिमाणात्मक और गुणात्मक-
 वृद्धि का तात्पर्य मात्रात्मक या परिमाणात्मक परिवर्तनो से जबकि विकास का सम्बध गुणात्मक परिवर्तनों से होता है। जैसे- बालक में वृद्धि हो रही है इसका अर्थ यह नहीं हो सकता कि उसमे विकास भी हो रहा है। जबकि बालक में विकास के लिए वृद्धि आवश्यक नहीं है।

4.वृद्धि और विकास की निरन्तरता-
वृद्धि लगातार नहीं चलती बल्कि शिशुकाल में तीव्र गति से और उसके बाद धीमी हो जाती है। लेकिन विकास की प्रक्रिया लगातार चलती रहती है। वह रूकती नहीं है।
   

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