Wednesday, July 31, 2019

विकास के विभिन्न सिद्धांत


विकास के विभिन्न सिद्धांत-

यद्यपि विकास सार्वभौमिक एवं निरंतर चलती रहने वाली क्रिया है लेकिन प्रत्येक प्राणी का विकास निश्चित नियमों के आधार पर ही होता है इन्हीं नियमों के आधार पर अनेक शारीरिक और मानसिक क्रियाएं विकसित होती रहती है। विकास के कुछ प्रमुख नियम निम्नलिखित हैं-

1. सतत या निरंतर विकास का सिद्धांत-
विकास की प्रक्रिया अबाध गति से चलती रहती है, यह गति तेज या मंद होती रहती है, जैसे- बालक के प्रथम 3 वर्ष में बालक के विकास की प्रक्रिया बहुत तीव्र रहती है यह सिद्धार्थ मानव विकास का सबसे प्रमुख सिद्धांत है. विकास की प्रक्रिया चलती रहती है तथा शरीर के कुछ अंगों का विकास तीव्र गति से होता है तथा कुछ अंगों का विकास मंद गति से होता है जिसके फलस्वरूप मनुष्य में कोई आकस्मिक परिवर्तन नहीं होता है। इस विषय में स्किनर महोदय का कथन है- "क्रियाओं को निरंतरता का सिद्धांत केवल इस बात पर जोर देता है कि शक्ति में कोई आकस्मिक परिवर्तन ना हो."

2.विकास क्रम का सिद्धांत-
इस सिद्धांत के अंतर्गत बालक का विकास एक निश्चित क्रम में होता है जैसे बालक जन्म के उपरांत केवल रोता है और 3 महीने के बाद वह एक विशेष प्रकार की आवाज निकालता है 6 माह के बाद वह आनंद की ध्वनि निकालने लगता है 7 माह में वह अपने माता-पिता के लिए शब्दों का प्रयोग करने लगता है भाषा को बोलना सीख जाता है, तो उसे क्रम भाषा का पढ़ना और लिखना सिखाया जाता है.

3. परस्पर संबंध का सिद्धांत-
बालक के शारीरिक मानसिक भाषाई संवेगात्मक सामाजिक और चरित्र के विकास में परस्पर संबंध होता है उदाहरण स्वरूप मनुष्य के शरीर के बाएं एवं आंतरिक अंगों में वृद्धि होती है उनका आकार एवं भार बढ़ता है जिससे क्षमता का विकास होता है गैरिसन एवं अन्य का कथन है-
"शरीर संबंधी दृष्टिकोण व्यक्ति के विभिन्न अंगों के विकास में सामंजस्य और परस्पर संबंध पर बल देता है."

4. विकास की विभिन्न गति का सिद्धांत-
मनोवैज्ञानिकों ने इस सिद्धांत के अंतर्गत स्पष्ट किया है कि व्यक्तियों के विकास की गति भिन्न-भिन्न होती है यह भिन्नता विकास के संपूर्ण काल तक बनी रहती है.  देखा गया है कि, जो बालक जन्म के समय लंबा होता है वह बड़ा होने पर भी लंबा रहता है और जो छोटा होता है वह छोटा ही रहता है.

5. सामान्य से विशिष्ट अनुक्रिया का प्रतिक्रियाओं का सिद्धांत-
बालक का विकास सामान्य अनुक्रिया से विशिष्ट प्रतिक्रिया तक होता है जैसे बालक पहले कुछ बोलने में सरल शब्दों का प्रयोग करता है परंतु धीरे-धीरे सही नाम का ज्ञान होने पर वह वस्तु को उसी के नाम से पुकारता है.

6. समान प्रतिमान का सिद्धांत-
हर्लोक महोदय ने बताया है कि प्रत्येक जाति चाहे वह पशु जाती हो या मनुष्य जाति अपनी जाति के अनुरूप ही विकास के प्रतिमान का अनुकरण करता है। उदाहरण- गाय का बच्चा जन्म लेते ही खड़ा हो जाता है परंतु मानव शिशु जन्म के समय मात्र रोना जानता है।

7. एकीकरण का सिद्धांत-
एकीकरण के सिद्धांत के अंतर्गत बालक पहले संपूर्ण अंकों और उसके उपरांत अन्य अंग को आंशिक भागों के रूप में चलाना सिखाता है। जैसे -बालक प्रत्येक वस्तु को एक ही तरह से उठाता है परंतु ज्ञान होने पर वह धीरे-धीरे अंगुलियों तथा हाथों का प्रयोग करने लगता है.

8. विकास के निश्चित दिशा का सिद्धांत-
मनोवैज्ञानिकों ने बताया है की विकास एक निश्चित दिशा में होता है जैसे प्रारंभ में बालक पहले अपना सिर उठाना सीखता है उसके उपरांत व अन्य भागों पर नियंत्रण करना सीखता है क्योंकि मनुष्य का विकास निश्चित दिशा में होता है वह हमेशा सिर से पैर की ओर होता है अतः तभी सीखने में 12 से 18 माह का समय लगता है.

9. व्यक्तिगत विभिन्नता का सिद्धांत-
एक ही माता पिता की दो संताने समान नहीं होती हैं तथा प्रत्येक बच्चे को हम एक समान पर्यावरण नहीं दे पाते हैं इससे बच्चों में व्यक्ति विविधता और बढ़ जाती है जैसे लंबाई के जींस प्राप्त होने पर बालक लंबा होगा परंतु लंबाई के जींस प्राप्त ना होने से उसकी लंबाई कम ही रहेगी जिससे उसके मानसिक संवेगात्मक एवं भाषाई विकास की गति धीमी हो जाएगी.

10. वंशानुक्रम व पर्यावरण की अंतः क्रिया का सिद्धांत-
बालक के विकास पर वंशानुक्रम तथा पर्यावरण की अंतर क्रिया का प्रभाव पड़ता है माता पिता से प्राप्त गुणों का विकास बालक प्राकृतिक एवं सामाजिक परिवेश में रहकर करता है बालक के विकास के लिए अनुवांशिकता से प्राप्त गुण अंतर्निहित होते हैं अंतः क्रिया द्वारा ही परिष्कृत किया जाता है हम देखते हैं कि यदि बालक दूषित वातावरण में निवास करता है तो उसे कुपोषण तथा अन्य रोग हो जाते हैं जिससे उसका विकास प्रभावित होता है.

Tuesday, July 30, 2019

वृद्धि एवं विकास की परिभाषा तथा अंतर





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प्रस्तावना-
प्रत्येक व्यक्ति में शारीरिक मानसिक भावनात्मक और सामाजिक परिपेक्ष में पल-पल बदलाव आता है.
जन्म के समय बालक शिशु कहलाता है कुछ समय बाद बालक फिर किशोर वयस्क और एवं वृद्ध कहलाता है। प्रारंभिक अवस्था में वह अबोध कहलाता है, फिर शरारती गंभीर विद्वान ज्ञानी आदि विशेषताओं से युक्त हो जाता है। व्यक्ति की आयु में वृद्धि के साथ साथ उसके शारीरिक और मानसिक योग्यता क्षमताओं में भी वृद्धि होने लगती है इस कारण व्यक्ति के व्यक्तित्व एवं व्यवहार में भी परिवर्तन होता रहता है। शिक्षा के क्षेत्र में बालक के व्यक्तित्व एवं व्यवहार का अध्ययन किया जाता है। बालक के संपूर्ण व्यक्तित्व में परिवर्तन को अभिवृद्धि एवं विकास के नाम से जाना जाता है।

अभिवृद्धि-
अभिवृद्धि का सामान्य अर्थ होता है आगे बढ़ना बालक के वृद्धि के संबंध में इसे उसके शरीर के आंतरिक एवं बाह्य अंगों के आकार भार और इनकी कार्यक्षमता में होने वाली वृद्धि के रूप में देखा जाता है मानव शरीर में यह वृद्धि एक आयु तक (18- 20 ) वर्ष की ही होती है. उसके बाद अंगों में वृद्धि नहीं होती अर्थात इस आयु तक व्यक्ति पूर्ण वयस्क हो जाता है इस वृद्धि को देखा परखा जा सकता है। और इसका मापन भी किया जा सकता है।
मानव अभिवृद्धि से तात्पर्य उनके शरीर के बाह्य एवं आंतरिक अंगों के आकार भार एवं कार्य क्षमता में होने वाली वृद्धि से होता है जो उसके गर्भ समय को परिपक्वता प्राप्त करने तक चलती है।

विकास का अर्थ-
विकास एक स्वाभाविक प्रक्रिया है जो जन्म से लेकर के जीवन पर्यंत तक निरंतर चलती रहती है केवल शारीरिक वृद्धि की ओर ही संकेत नहीं करती अपितु इसके अंतर्गत हुए सभी शारीरिक मानसिक सामाजिक एवं संवेगात्मक परिवर्तन सम्मिलित रहते हैं जो गर्भ काल से लेकर के मृत्यु उपरांत तक निरंतर प्राणी में प्रकट होते रहते हैं।विकास में होने वाले सभी परिवर्तन सामान नहीं होते जीवन की प्रारंभिक अवस्था में होने वाले परिवर्तन रचनात्मक और परिवर्तन विनाशात्मक होते हैं रचनात्मक परिवर्तन प्राणी में परिपक्वता लाते हैं और विनाश आत्मक परिवर्तनों से वृद्धावस्था की ओर ले जाते हैं। विकाश एक व्यापक शब्द है। इसे परिवर्तनों की श्रंखला भी कहा जाता है इसके फलस्वरूप व्यक्ति में नवीन विशेषताओं का उदय होता है तथा पुरानी समस्याओ की समाप्ति हो जाती है। प्रौढ़ावस्था में पहुच कर मनुष्य स्वयं को जिन गुणों से संपन्न पाता है विकास की प्रक्रिया के ही परिणाम होते हैं।

विकास की परिभाषा-
हरलॉक के अनुसार-
"विकास केवल अभिवृद्धि तक ही सीमित नहीं है वरन् वह व्यवस्थित तथा संगत परिवर्तन है जिसमें की प्रौढ़ावस्था के लक्ष्य की ओर परिवर्तनों का प्रगतिशील क्रम नहीं रहता है जिसके परिणाम स्वरूप व्यक्ति में नवीन विशेषताएं एवं योग्यताएं प्रकट होती हैं."

मुनरो के अनुसार -
“विकास परिवर्तन श्रंखला की वह अवस्था है जिसमें बच्चा प्रौढ़ावस्था से लेकर के पूर्ण अवस्था तक गुजरता है विकास कहलाता है.”

वृद्धि एवं विकास में अंतर -
मुख्यतः वृद्धि एवं विकास का प्रयोग लोग पर्यावाची शब्द में करते हैैं लेकिन इन दोनों में काफी अंतर है जिसे हम निम्नलिखित रूप से देख सकते हैैं -

1.अर्थ के अधार पर-
वृद्धि का अर्थ है शारीरिक परिवर्तन। इन परिवर्तनो के कारण व्यवाहार मे परिवर्तन होने लगता है। लेकिन विकास का अर्थ गुणात्मक परिवर्तनो से किया जाता हैं। जैसे- बालक की कार्यकुशलता का विकास, उसकी कार्यक्षमता में विकास और व्यवहार में सुधार आदि।

2.व्यापक व संकुचित शब्द-
वृद्धि को विकास से संकुचित माना जाता है। क्योंकि वृद्धि की अवधारणा विकास की अवधारणा का ही एक भाग है।

3.परिमाणात्मक और गुणात्मक-
 वृद्धि का तात्पर्य मात्रात्मक या परिमाणात्मक परिवर्तनो से जबकि विकास का सम्बध गुणात्मक परिवर्तनों से होता है। जैसे- बालक में वृद्धि हो रही है इसका अर्थ यह नहीं हो सकता कि उसमे विकास भी हो रहा है। जबकि बालक में विकास के लिए वृद्धि आवश्यक नहीं है।

4.वृद्धि और विकास की निरन्तरता-
वृद्धि लगातार नहीं चलती बल्कि शिशुकाल में तीव्र गति से और उसके बाद धीमी हो जाती है। लेकिन विकास की प्रक्रिया लगातार चलती रहती है। वह रूकती नहीं है।
   

Saturday, July 27, 2019

शिक्षा मनोविज्ञान का अर्थ एवं परिभाषा

Tet के परीक्षा में मनोविज्ञान से 30 नंबर के प्रश्न पूछे जाते है। मनोविज्ञान से आने वाले प्रश्न कांसेप्ट पर आधारित होते है। मै अपने इस ब्लॉग के जरिये आपके कांसेप्ट को क्लियर करने में मदत करूँगी।


शिक्षा मनोविज्ञान

-शताब्दी पूर्व मनोविज्ञान को दर्शनशास्त्र की एक शाखा के रूप में माना जाता था.
-मनोविज्ञान को स्वतंत्र विषय बनाने के लिए इसे परिभाषित करना प्रारंभ किया गया.
-साइकोलॉजी शब्द की उत्पत्ति गैरेट के अनुसार ग्रीक लेटिन भाषा के 2 शब्द से से मिलकर हुई है Psyche+Logos से मिलकर हुई है.
Psyche का अर्थ है आत्मा
Logos का अर्थ है अध्ययन करना.
-आत्मा शब्द को आधार मानकर 16वीं शताब्दी में सर्वप्रथम प्लेटो, अरस्तु के द्वारा मनोविज्ञान को आत्मा का विज्ञान  माना गया.

-आत्मा शब्द की स्पष्ट व्याख्या नहीं होने के कारण 16 वीं शताब्दी के अंत में यह परिभाषा अमान्य हो गई.
17 वीं शताब्दी में इटली के मनोविज्ञान लॉजिक व सहयोगी खास डे रीडर ने मनोविज्ञान को मानव मस्तिष्क का विज्ञान माना.

यह परिभाषा भी तथ्य न होने के कारण 18वीं शताब्दी में अमान्य हो गई.
-विलियम वुन्ट ने जर्मनी के लिपिजिंग शहर में 1879 को प्रथम मनोवैज्ञानिक प्रयोगशाला तथा भारत में 1945 कोलकाता में सेन गुप्त द्वारा स्थापित प्रथम मनोवैज्ञानिक प्रयोगशाला स्थापित की। विलियम वुन्ट को प्रयोगात्मक मनोविज्ञान का जनक माना जाता है।
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-बीसवीं शताब्दी में मनोविज्ञान व्यवहार का विज्ञान माना गया है आज तक यही परिभाषा प्रचलित है विज्ञान में आने वाले प्रमुख मनोवैज्ञानिक वाटसन और इनके अलावा स्किनर ,मैकडुगल ,वुडवर्थ, थार्नडाइक है.

मनोविज्ञान की प्रमुख परिभाषा-

वाटसन की परिभाषा
” तुम मुझे एक बालक दो मैं उसे वह बना दूंगा जो मैं बनाना चाहता हूं”

वुडवर्थ की परिभाषा-
" मनोविज्ञान ने सर्वप्रथम अपनी आत्मा का त्याग किया मस्तिष्क का त्याग किया फिर उसने अपनी चेतना का त्याग किया और आज वर्तमान में मनोविज्ञान व्यवहार के विधि रूप को स्वीकार करता है."

मैकडुगल के अनुसार-
" मनोविज्ञान व्यवहार व आचरण का विज्ञान है।"

स्किनर के अनुसार
" मनोविज्ञान व्यवहार व अनुभव का विज्ञान है"

क्रो एंड क्रो के अनुसार
" मनोविज्ञान मानव व्यवहार और मानव संबंधों का अध्ययन है"







Friday, July 26, 2019

सिखने संबंधी विकार learning disabilities

सिखने संबंधी विकार की परिभाषा-

“सीखने की विशिष्ट अशक्तता का अर्थ एक ऐसे विकार से है जो एक या एक से अधिक उन बुनियादी मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाओं से जुड़ा है जो भाषा समझने और उसका मौखिक या लिखित इस्तेमाल करने के काम में शामिल हैं. इसमें सुनने, बोलने, पढ़ने, स्पेलिंग बोलने या गणित के सवाल हल करने में योग्यता कम हो जाती है.
इस विकार के तहत ऐसी स्थितियाँ शामिल हैं जैसे बोधात्मक या प्रत्यक्ष-ज्ञानात्मक बाधाएँ, दिमाग की चोट, मस्तिष्क की कार्यप्रणाली में त्रुटि, डिस्लेक्सिया और अफ़ैश यानि वाचाघात (लिखित या मौखिक भाषा को समझने की अक्षमता).
इस विकार के दायरे में वे बच्चे नहीं आते हैं जिन्हें सीखने की समस्याएँ हैं जो मुख्य रूप से देखने, सुनने या संदेशों के संचार की रुकावटों या बाधाओं, मानसिक मंदता, भावनात्मक अवरोध या पर्यावरणीय, सांस्कृतिक या आर्थिक नुक़सान का नतीजा होती हैं.” 
कुछ बच्चे धीमी गति से सीखना शुरू करते हैं लेकिन आख़िरकार अपनी पढ़ाई-लिखाई और दूसरी गतिविधियों को सीखने और उनसे तालमेल बैठाने में समर्थ हो जाते हैं. कुछ बच्चों की विशिष्ट किस्म की गतिविधियों को सीखने में दिलचस्पी नहीं हो सकती है.
जैसे नई भाषा को सीखना. कोई नयी ख़ास गतिविधि या निपुणता को सीखना, या कोई अकादमिक विषय. या खेलों में या दूसरी बाहरी गतिविधियों में उनकी रुचि नहीं हो सकती है. ये सब रुझान बच्चे की रुचियों के बारे में बताते हैं और सीखने की अशक्तता के सूचक नहीं हैं.




सिखने का विकार ( learning disabilities) सिखने में आने वाली समस्याओ को ही सिखने का विकार कहते हैं। सिखने का विकार निम्नलिखित है---


(1) Aphasia(वचनाघात):- इस विकार में बालक को भाषा की समझ और पढ़ने या लिखने की छमता प्रभावित होती है।
(2) डिस्लेक्सिया:- बालक पढ़ने में कठिनाई महसूस करते हैं। इस समस्या से पीड़ित बालक अक्षरों को उल्टा देखते है या पीछे की तरफ लिखते है।
(3) हैपेरलेक्सिया:- हैपेरलेक्सिया एक सिंड्रोम है जिससे एक बच्चे की पढ़ने की असामयिक क्षमता , समझने तथा मौखिक भाषा के उपयोग करने में महत्वपूर्ण समस्या होती है।
(4) डिसकैल्कुलिया:- इसमें गणित सिखने या समझने में कठिनाई होती है।
(5) डिसग्राफिया:- लिखने में होने वाली समस्या को डिसग्राफिया कहा जाता है।
(6) डिस्पेराक्सिया:- इसमें बैव्हे के रोजमर्रा के शारीरिक कार्यो को करने की व्यापक क्षमता को प्रभावित कर सकती है, जिसमे मोटर कौसल सम्मिलित है। इसमें कूदने, स्पष्ट रूप से बोलने और एक पेंसिल को पकड़ने जैसी समस्या होती है।

Up Lekhpal Bharti Preparation Tips And Best Books 2020 in Hindi

उत्तर प्रदेश अधीनस्थ सेवा चयन आयोग (UPSSSC) ने लेखपाल (समेकन लेखाकार) के लिए आवेदन आमंत्रित किया है। कुल 5000 से भी ज्यादा वैकेंसी है। 12 व...